Ramayan Tiwari - A Oldest Actor From Bihar Who worked in Hindi Movies

 





हिंदी सिनेमा का ब्लैक एंड वाइट का ज़माना, सिर्फ राज कपूर और नरगिस के लिए जाना नहीं गया. उस जमाने में ऐसे ऐसे बढ़िया कलाकार रह चुके थे जिनके बदौलत फिल्म जगत इतना काबिल बना. ऐसे लोगो ने सिर्फ खुद के लिए अभिनय क्षेत्र नहीं चुना, उन्होंने अपने अपने स्थानीय क्षेत्र और बोलीभाषा के लिए बहुत प्रबल कार्य किये थे. उनका मानना था कि सिर्फ हिंदी के अलावा भी दूसरी भाषा में फिल्में बनाई जा सकती हैं. ऐसे में मराठी सिनेमा अपने उच्च स्थान पर पहुँच चूका था, बंगाली समेत साउथ इंडियन भाषा की फिल्में भी चल रही थी. पर उत्तर भारत का भोजपुरी स्थान उस वक़्त भी फिल्मो से काफी दूर था. ऐसे में एक कलाकार ऐसा आया जिसने ना सिर्फ बिहार का नाम रोशन किया, बल्कि भोजपुरी फिल्म जगत की स्थापना में अहम योगदान दिया. ऐसे बहुत कम दर्शक होंगे जिन्हे पता चल गया होगा की आज की कहानी प्रसिद्ध अभिनेता 'रामायण तिवारी' पर हैं. रामायण तिवारी के साथ प्रसिद्ध इस लफ्ज़ का इस्तेमाल होना तो शुरू हुआ हैं. उस वक़्त इनका नाम भी कोई जानता नहीं था. इन कलाकारों ने बेनाम जिंदगी गुजार के समाज कार्य किया है. खैर, आपको बता दू की रामायण तिवारी का फ़िल्मी सफर, एक आम कहानी नयी हैं, हमें पूरा विश्वास हैं की हमारे जैसे आपको भी इनके चरित्र से कुछ ना कुछ सिखने को मिलेगा. नमस्कार दोस्तों, मैं हूँ आपकी अनामिका, और स्वागत है आपका अपने ब्लॉग में जिसे कहते हैं बायोग्राफी एंड रियल लाइफ स्टोरी.  


पटना के नजदीक मनेर नामक गाँव है
, जहाँ 1917 रामायण तिवारी का जन्म हुआ था. वो दौर आज़ादी की जंग का था और हर नववयुवक का खून आज़ादी के लिए खोल रहा था. ऐसे में रामायण तिवारी भी कहाँ अपवाद रहते. थोड़ी बहुत पढ़ाई होने के बाद वे आज़ादी के जंग में शामिल हो गए और आज़ाद हिन्द फौज के संपर्क में आये. 1940 के साल में आंदोलन तीव्र रूप में शुरू हुआ तब रामायण तिवारी ने अपना गाँव भी छोड़ दिया. ट्रैन में सफर करते वक़्त उन्होंने एक अंग्रेज को देखा और उसे ट्रैन के बाहर फेक दिया. जब सुरक्षाकर्मियों को बात पता चली तब वे प्लेटफार्म से भाग गए और दूसरी ट्रैन पकड़ी. वो ट्रैन कहा जा रही थी, ये उन्हें पता नहीं था. जिन लोगों के साथ वे सफर कर रहे थे वो भी गुम हो चुके थे, तिवारी जी ने किसी को पूछा, 'भाई ये ट्रैन कहा जा रही हैं?" जवाब आया "मुंबई!" उन्हें क्या पता था की उनकी किस्मत उन्हें वहां लेकर जा रही हैं जहा से उनके रास्ते बदलने वाले हैं.

खाली जेब मुंबई आकर तिवारी को बहुत अजीब महसूस होने लगा, चकाचक भरी नगरी देखकर वो डर गए. पर उन्होंने होश संभाल लिया और मुंबई के प्रभात स्टूडियो में काम करने लगे. उन दिनों वे दिन में प्रभात स्टूडियो में काम करते थे और रात को आज़ादी के गतिविधियों में हिस्सा लेते थे. कुछ साल उनकी जिंदगी इस तरह से गुजरी. ऐसे में आज़ादी का ख्वाब पूरा होने लगा और तिवारी जैसे क्रन्तिकारी बेरोजगार होने लगे. इसी को ध्यान में रखते हुए रामायण तिवारी ने अभिनय क्षेत्र चुन लिया. उनके नाम पहली फिम 1941 में रिलीज़ हुई हैं, जिसका नाम निर्दोष था. फिर ५ साल बाद उनकी दूसरी फिल्म ग़ुलामी रिलीज़ हुई. तब तक उन्होंने ऐसा कोई फैसला नहीं किया था की वे हमेशा अभिनय करते रहेंगे. पर आज़ादी के बाद उन्होंने अभिनय क्षेत्र को चुन लिया. 

रामायण तिवारी का फ़िल्मी सफर कैसे शुरू हुआ उसके पीछे एक कहानी हैं. एक दिन वे स्टूडियो में काम कर रहे थे. वही किसी फिल्म की शूटिंग हो रही थी और एक करैक्टर आर्टिस्ट आ नहीं पाया. डायरेक्टर के कहने पर वो किरदार रामायण तिवारी को करना पड़ा. इस छोटे से किरदार को भी उन्होंने अपने भारी आवाज से दमदार बना दिया. आपको बता दूँ की रामायण तिवारी बड़े ही उम्दा अभिनेता साबित हुए. उस दौर में पृथ्वीराज कपूर जैसा अभिनय वो कर लेते थे. फिल्मकारों के लिए रामायण तिवारी के रूप में अच्छा खलनायक मिल चुका था. वो बात अलग है की समय के अनुसार उन्हें वैसी फिल्मे मिली नहीं जिससे वे सुपरस्टार खलनायक के सूचि में आते. पर उन्होंने जो भी काम किए उन्हें अच्छी प्रशंसा मिली. 




रामायण तिवारी जब घर से भाग गए तब उन्होंने किसी को कुछ कहा नहीं था. इसीलिए १०-१५ साल गुजरने के बाद घरवालों को लगा की रामायण तिवारी गुजर गए हैं. इसलिए घरवालों ने उनका अंतिम संस्कार भी कर दिया. पर एक दिन बहुत ही गजब की बात हो गई. उनके गाँव में एक फिल्म लगी थी, गांववाले फिल्म देख रहे थे, इसीबीच उन्होंने बड़े परदे पर रामायण तिवारी को देख लिया और घरवालों के होश उड़ गए. तुरंत ही उन्होंने रामायण तिवारी से संपर्क किया. बाद में रामायण तिवारी कुछ महीने अपने गांव में बिताते थे तो कुछ महीने मुंबई आते थे. इस बीच उन्होंने देखा की मराठी लोग अपने भाषा में फिल्में बनाते हैं. दुसरे भाषिक लोग भी यही कर रहे थे. तिवारी के मन में विचार आया की भोजपुरी भाषा में फिल्में क्यों नहीं बनती. इसीलिए रामायण तिवारी ने नज़ीर हुसैन से बात की और पहली भोजपुरी फिल्म बनाने का फैसला किया. ऐसे में भारत के पहले राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद जी ने भी नज़ीर से भोजपुरी सिनेमा बनाने की बात की थी. नज़ीर खान उन दिनों 'गंगा मैया तोहे पियरी चढ़इबो' इस फिल्म को लिख रहे थे. इस फिल्म को बनाने के लिए रामायण तिवारी ने ना सिर्फ आर्थिक मदत की, बल्कि इसे इन्हीके गाँव मनेर में फिल्माया गया. फिल्म के क्रू मेंबर्स रामायण तिवारी के घर रहते थे. इसीलिए आज भी मनेर गाँव प्रसिद्ध हैं. क्यूंकि इसी गांव से भोजपुरी सिनेमा की शुरुआत हुई थी. 1963 में रिलीज़ हुई ये फिल्म बहुत बड़ी हिट कहलाई और आगे चलकर शेकडो भोजपुरी फिल्मे बनती रही. 

36 वर्षो के फ़िल्मी सफर में रामायण तिवारी ने 125 फिल्मो में काम किया था, उनमे यहूदी, नीलकमल, जिस देश में गंगा बहती हैं, पत्थर के सनम, पोस्ट ऑफिस 999, गोपी, दुश्मन, मधुमती, दो बीघा जमीन, महाभारत.. जैसी फिल्में शामिल हैं. प्रभात स्टूडियो ने फिल्म जगत को तीन कलाकार दिए हैं, जिनमे जयंत और प्राण के साथ रामायण तिवारी भी थे. लगभग सभी विख्यात फिल्मकारों के साथ उन्होंने फिल्म की थी. राज कपूर के वे अच्छे दोस्त हुआ करते थे. बिहार से जितने भी प्रसिद्ध राजनेता था उनसे रामायण तिवारी की अच्छी दोस्ती थी, जब भी जय प्रकाश नारायण मुंबई आते थे तो रामायण तिवारी से जरूर मिलते थे. समाजकार्य से भी वो वंचित नहीं रहे, उन दिनों कैंसर पीड़ित का ऑपरेशन मुंबई में होता था, जब भी बिहार में किसी गरीब इंसान को मुंबई आना होता था तब वो रामायण तिवारी की मदत लेता था. इस बात के लिए रामायण तिवारी ने किसी को भी निराश नहीं किया. आगे चलकर उनका बेटा भूषण तिवारी भी करैक्टर एक्टर बना. रामायण तिवारी का पोता 'सुजीत तिवारी' भोजपुरी सिनेमा का बड़ा नाम हैं.  

 

तो ऐसे थे रामायण तिवारी, हिंदी समेत स्थानीय भाषा में उपयुक्त योगदान वाले इस हस्ती का देहांत 9 मार्च 1980  को हुआ.   


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